भगवान शिव और आयुर्वेद : नाड़ी विज्ञान व बाल रोग के प्रणेता
जनगणमन.लाईव
भगवान शिव और आयुर्वेद : नाड़ी विज्ञान व बाल रोग के प्रणेता
देवों के देव आदि देव भगवान सदाशिव त्र्यंबक शंकर वह कैलाश के निवासी हैं । भगवान ने वेदों का सस्वर प्रणयन किया और संगीत दिया स्वरों का निर्माण किया इसी क्रम में पंचम वेद आयुर्वेद काभी ज्ञान उन्होंने ऋषियों को और अपने शिष्य रावण को दिया । इसी आयुर्वेदिक ज्ञान से रावण ने नाड़ी विज्ञान का एक बहुत बड़ा ग्रंथ रावण सहिंता लिखा। नाड़ी विज्ञान का ज्ञान भगवान शिव ने ही रावण को दिया था । इसके साथ ही बालकों की चिकित्सा भी भगवान शिव ने रावण को बताई थी । क्योंकि कार्तिकेय के जन्म के समय बहुत सारी कठिनाइयां आई थी और उनके निवारण के लिए भगवान ने विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के साथ ग्रह या भूत बाधा चिकित्सा पद्धति भी प्रारंभ की थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान नाड़ी विज्ञान ,बालरोग, भूत बाधा और ग्रह विज्ञान के भी आदि चिकित्सक हैं।
विष विज्ञान एवम् वनस्पति शास्त्र के प्रथम विशेषज्ञ
समुद्र मंथन में 14 रत्नों में अमृत और विष यह 2 रत्न भी योग मूल रूप से प्रकट हुए। जहां अमृत के लिए भगवान धन्वंतरि देवता थे । वही विष उत्पन्न होने पर उसके शमन के लिए उसके धारण के लिए सदा शिव शंकर ने अपने आप को प्रस्तुत किया । वस्तुतः भगवान शिव विश्व के प्रथम विष वैज्ञानिक भी थे ।जिन्होंने स्थावर विष जिसको की कालकूट विष कहा गया और जो समुद्र मंथन से प्रकट हुआ उसके चिकित्सा की उसको गले में धारण किया। आयुर्वेदिक सिद्धांतों के अनुसार स्थावर विष की चिकित्सा जंगम अर्थात जानवर के जहर से होती है ।क्योंकि भगवान शिव सदा गले में काला नाग धारण करते हैं वह इस बात का प्रतीक है कि वह जंगम विष के भी अधिकारी थे। उन्होंने इस स्थावर विष को जंगम विष के प्रयोग से नष्ट किया। साथ ही आयुर्वेदिक चिकित्सा सिद्धांतों में विष चिकित्सा के अंतर्गत विभिन्न वानस्पतिक उप विषों के माध्यम से भी चिकित्सा करना कहा गया है । उसी के अंतर्गत धतूरा बिल अर्क करवीर कनेर इत्यादि इत्यादि विषों को विष चिकित्सा में प्रयुक्त किया गया है। हम सभी जानते हैं कि भगवान शिव के ऊपर उक्त समस्त विषो का अभिषेक किया जाता है। बिल्वपत्र धतूरा अर्क पत्र (आक), कनेर की पत्तियां ,कनेर के फूल, कनेर के पुष्प ,अरंड फल, अफीम इत्यादि वानस्पतिक द्रव्यों से भगवान का अभिषेक होता है। लोक सुक्तियों में और लोक कथाओं में भी भगवान को धतूरा पीने वाले देवता के रूप में अथवा नशा करने वाले देवता के रूप में कहा जाता है। परंतु इसके पीछे की जो वास्तविकता है वह यह है कि भगवान स्थावर विष और जानवर की चिकित्सा विभिन्न वनस्पतियों के माध्यम से करते हैं ।इस दृष्टि से भगवान विश्व के प्रथम वनस्पति शास्त्र वनस्पतियों के माध्यम से चिकित्सा करने वाले सर्व प्रथम वैद्य और विष विज्ञान के अधिष्ठाता हुए ।
प्रथम शल्य चिकित्सक
भगवान का विवाह दक्ष पुत्री सती से हुआ दक्ष के अहंकार के कारण से विग्रह होना स्वाभाविक ही था और उस विग्रह का कॉल आया ।दक्ष यज्ञ के समय जहां माता सती भगवान शिव के अपमान से क्रुद्ध होकर अपने आप को योगाग्नि में भस्म कर लेती हैं ।जिसके कारण भगवान शिव के गणों ने दक्ष के यज्ञ का ध्वंस किया और दक्ष को मृत्यु दंड दिया ।उन्होंने दक्ष का शीश काटकर अलग फेंक दिया ।सारे संसार में त्राहि त्राहि मच गई। भगवान विष्णु ,ब्रह्मा जी और समस्त देव आदि ने मिलकर भगवान भोलेनाथ शिव शंकर शंभू जी से निवेदन किया ।दक्ष को जीवित करें अन्यथा प्रजा का पालन कैसे होगा ?
तब भगवान शिव ने बकरे के सिर का प्रत्यारोपण दक्ष के सिर पर किया। यह चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में एक अत्यंत आश्चर्यजनक कार्य था जो कि वर्तमान में ऑर्गन ट्रांसप्लांटेशन के नाम से जाना जाता है।
इसी प्रकार भगवान शिव के छोटे पुत्र विनायक गणेश के बारे में भी एक कथा मिलती है गणेश के द्वारा भगवान को भवन में प्रवेश न देने पर विग्रह हुआ और उस विग्रह में उस युद्ध में गणेश का सिर भी कटा माता पार्वती के क्रोध के कारण भगवान शिव ने हाथी के बालक का सिर गणेश के सिर के स्थान पर प्रत्यारोपित किया यह भी अंग प्रत्यारोपण के क्षेत्र में एक चमत्कारिक और वैज्ञानिक शल्यचिकित्सा थी। राजयक्ष्मा ( ट्यूबरक्लोसिस) के प्रथम वैद्य
भगवान भोलेनाथ दक्ष प्रजापति के दामाद थे ।उनकी पत्नी सती के 63 बहनें थी। जिनमें से 28 बहनों की शादी औषधियों के राजा और अत्रि के पुत्र चंद्रमा के साथ हुई थी ।उन पत्नियों में रोहिणी नामक जो पत्नी थी उस पर चंद्रमा की विशेष आसक्ति थी। अत्यधिक मैथुन के कारण चंद्रमा के शुक्र का और ओज का क्षय हो गया ।आयुर्वेदिक चिकित्सा सिद्धांतों में राज्य क्षमा के कारणों में शुक्र क्षय के कारण से धातुओं के होने वाले प्रतिलोम क्षय को भी एक कारण माना गया है। शुक्र के क्षय होने से शरीर की मज्जा अस्थि मेद मांस रक्त और रस और आदि धातुओं का क्रमशः क्षय होता जाता है ।उसके कारण से शरीर सारहीन और बहुत सारी व्याधियों का आश्रय स्थल बन जाता है ।तब माता सती और रोहिणी आदि समस्त पत्नियों के निवेदन पर भगवान शिव ने अश्विनीकुमारों के सहयोग से राज यक्ष्मा की चिकित्सा की। वहां पर सिद्धांत दिया जीवन में संयम और मर्यादा का क्या स्थान होना चाहिए ।यह ज्ञान उन्होंने विश्व को दिया ।आज भी चरक संहिता के अंदर राजयक्ष्मा प्रकरण (चिकित्सा स्थान 8)में उक्त चिकित्सा सिद्धांत को कहा गया है ।
प्रथम ज्वर के वैज्ञानिक चिकित्सक
माता सती के द्वारा स्वयं को दक्ष यज्ञ की योगाग्नि में भस्म करने के बाद भगवान शिव के गणों ने दक्ष यज्ञ को ध्वस्त किया और जब यह समाचार भगवान को लगा तो अत्यधिक क्रोध की उत्पत्ति के कारण से तथा रुद्र के गणों के उत्पात से संपूर्ण संसार संतापित् और विषयुक्त हो गया ।जिसके कारण ज्वर की उत्पत्ति हुई (चरक चिकित्सा ज्वर अध्याय 3)। समस्त संसार के लोगों के द्वारा भगवान शिव की उपासना करने पर भगवान ने दक्ष और अश्विनी कुमार को और इंद्रादि देवताओं को ऋषि-मुनियों को ज्वर चिकित्सा के बारे में बताया और कहा कि मानसिक दोषों काम, क्रोध,लोभ, मोह इत्यादि को दूर कर के भी ज्वर जीता जा सकता है तथा आम विष का उत्पन्न होना भी ज्वर का एक कारण है अतः आम की उत्पत्ति शरीर में यदि ना हो तो भी जो उत्पन नहीं होगा ।इस तरह ज्वर के और विष के मूल कारण और उनकी चिकित्सा का भी वर्णन भगवान भोलेनाथ ने किया।
रसविद्या एवम् वाजीकरण के प्रथम वैज्ञानिक
वाजीकरण अर्थात शरीर में जनन क्षमता और मैथुन शक्ति को परिवर्धित करने का विज्ञान।
माता सती के देहांत के पश्चात् भगवान समाधिस्थ हुए और उसके कारण वह संपूर्ण संसार से अलग हो गए ।हिमवान और मैना के यहां पर माता सती ने पार्वती के रुप में जन्म लिया। जब नारद आदि सप्तर्षियों ने माता की जन्म कुंडली को देखा और कहा कि उनका विवाह ऐसे व्यक्ति के साथ होगा जो बिना घर के रहने वाला होगा ,अमंगल वेष को धारण करने वाला होगा, जिसके कुल और खानदान का कोई पता नहीं होगा, आदि अवगुणों के साथ साथ जो समस्त अमंगल का नाश करने वाला होगा ,जिसके स्मरण दर्शन और नाम को लेने मात्र से समस्त दुखों का नाश होगा ,वह संपूर्ण संसार का पूज्य होगा, देव यक्ष गंधर्व किन्नर नाग मनुष्य राक्षस दानव भूत प्रेत पिशाच एवम् धरती के समस्त चराचर जगत का वह स्वामी होगा। पशु-पक्षी भी उसको अपना भगवान स्वीकार करेंगे। वह देवाधिदेव होगा। वह समस्त शक्तियों का आश्रय स्थल बनेगा ।ऐसा पति पार्वती को प्राप्त होगा ।जब माता पार्वती ने अपने पति के बारे में सुना तभी उन्होंने निश्चय कर लिया कि मेरा पति सिर्फ यही होंगे जो नारद ने बताया है और उन्होंने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या प्रारंभ की।जिसके फलस्वरूप भगवान शिव ने माता पार्वती के साथ विवाह की अनुमति दी। क्योंकि भगवान की अवस्था माता पार्वती से वय में अधिक थी ।इस कारण विवाह के पश्चात जनन शक्ति गृहस्थ धर्म के पालन हेतु वाजीकरण शक्ति के परिवरधन हेतु भगवान शिव ने विभिन्न औषधीय गुणों का निर्माण संपूर्ण संसार के लिए किया ।जिसके माध्यम से एक श्रेष्ठ संतति और पीढ़ी का निर्माण हो तथा समाज व देश के लिए वह संतान श्रेष्ठतम कार्य कर सकें। उक्त संतति के निर्माण के लिए एक श्रेष्ठ व अच्छे गुणों से युक्त शुक्र की आवश्यकता होती है और बाजीकरण औषधियों के द्वारा ऐसे ही शुक्र की प्राप्ति और निर्माण किया जा सकता है। भगवान शिव ने उक्त चिकित्सा के द्वारा ऐसे ही सृष्टि के निर्माण हेतु अविष्कार किया। इसी क्रम में भगवान शिव ने रस औषधियों का अविष्कार किया जिसका मूल आधार पारद और गंधक थे। विभिन्न खनिज धातु रत्न और उपरत्न विषों के माध्यम से भी चिकित्सा संभव है ।यह भगवान शिव ने बताया इसीलिए भगवान शिव को भी रस विद्या का आदि वैद्य स्वीकार किया गया है। पारद को सिद्ध करना बद्ध ,करना मूर्छित करना और उसको शिवलिंग के रूप में निर्मित करना एक आश्चर्यजनक व चमत्कारिक कार्य है और उसके बाद उसका उपयोग चिकित्सा के रूप में करना तत्कालीन समय का एक अत्यंत दुरूह और गुणकारी भगवान शिव ने संपादित किया। इस रस विद्या के द्वारा संपूर्ण संसार को रोग मुक्त और दुखों से मुक्त करने का संकल्प सदाशिव भगवान भोलेनाथ ने किया ।आज भी रस विद्या के श्रेष्ठतम तज्ञ लोग असाध्य से असाध्य व्याधियों पर भी उक्त रस चिकित्सा करके यश प्राप्त करते हैं। कई स्थानों पर भी पारदेश्वर भगवान का शिवलिंग हमें प्राप्त होता है।
प्रथम नियोनेटल केयर और बाल रोग चिकित्सा के जनक
भगवान के प्रथम पुत्र स्कंद पति कार्तिकेय के जन्म के विषय में पौराणिक आख्यान हैं कि उनका लालन-पालन 6 कृतिकाओं ने किया। वास्तव में कार्तिकेय का जन्म से ही अत्यंत गहनतम चिकित्सा पद्धति के माध्यम से उनकी देखभाल की गई थी।आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की शिशु गहनतम इकाई(neonatal care unit) यही थी। भगवान शिव के मार्गदर्शन में इन कृतिका और अग्नि देव ने मिलकर कार्तिकेय का बाल्यकाल से व्यवस्थित पालन पोषण करके उनको स्वस्थ रखा। इस प्रकार साथ ही विभिन्न प्रकार के ग्रहों की चिकित्सा भी भगवान ने सर्वप्रथम यहां पर बताइ।कार्तिकेय की रक्षा के लिए स्कंद ग्रह व रेवती इत्यादि माता ग्रह और पुरुष ग्रहों का विधान आचार्य ने कश्यप संहिता के अंदर जो लिखा है वह भगवान शिव के आदि ज्ञान के कारण से ही हमें प्राप्त होता है।
योग के आदि योगी और प्रणेता योग परंपरा के अंदर भगवान शिव को आदि योगी कहा जाता है। योगी परंपरा में नाथ संप्रदाय का विशेष प्रभाव पौराणिक आख्यानों देखा जाता है ।इसी कारण नाथ संप्रदाय में भगवान शिव को आदिनाथ और आदियोगी के नाम से भी कहा जाता है ।योग चिकित्सा के माध्यम से मोक्ष को प्राप्त करने की विधि भगवान भोलेनाथ के द्वारा ही दी गई है ।माता सती के देहांत के पश्चात उनके आध्यात्मिक विकास के लिए योग को ही भगवान शिव ने एक प्रमुख विद्या बताया था और विभिन्न जन्मों के पश्चात माता सती ने अपने योगिक विकास से अपने आध्यात्मिक विकास को पुष्ट किया और पार्वती के रूप में जन्म लेकर भगवान की अर्धांगिनी बनी ।आज संपूर्ण विश्व योग और आयुर्वेद की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहा है भारतीय सनातन संस्कृति की इस प्राचीनतम विधा से संपूर्ण विश्व और मानवता के कष्टों से मुक्ति मिले इसी उद्देश्य और आशा के साथ संपूर्ण संसार के और भारतवर्ष के आयुर्वेद योग चिकित्सक पुरुषार्थ कर रहे हैं भगवान शिव महामृत्युंजय समस्त दुखों को नष्ट करने वाले हैं समस्त पापों के द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को मुक्त करने वाले व्यक्ति को मोक्ष देने वाले हैं इस प्रकार इस महोत्सव में एक चिकित्सक के रूप में एक युग शास्त्री के रूप में एक कष्टों से मुक्त करने वाले देव के रूप में भगवान शिव का स्मरण करना हम सभी के लिए प्रासंगिक भी है और उपयोगी भी देवाधिदेव भगवान शिव की जय जयकार सदा हो।
साभार : वैद्य रामतीर्थ शर्मा